अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के दोष/हानियाँ/अवगुण । Disadvantages of International Trade


यद्यपि अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से अनेक आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक लाभ प्राप्त होते हैं पर अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से होने वाली हानियाँ इतनी भयंकर हैं कि उसके नियंत्रण की प्रवृत्ति को बल मिलता है । मुख्य हानियाँ इस प्रकारहैं:-

{ 1 } विदेशी प्रतियोगिता के कारण उद्योगों का पतन :- प्रतिस्पर्द्धा तब तक अच्छी तरह लाभप्रद मानी जाती है जब तक प्रतियोगिता करने वाले राष्ट्रों का आर्थिक विकास समान स्तर पर हो । वास्तव में विश्व में ऐसे राष्ट्र अधिक है जो पिछड़े हैं और कुछ ही विकसित राष्ट्रों को विदेशी बाजार में अप्रत्याशित लाभ प्राप्त होते हैं । अविकसित पिछड़े राष्ट्रों के घरेलू उद्योग विकसित राष्ट्रों के आधुनिक उद्योगों को प्रतिस्पर्द्धा में टिक नहीं पाते । उनका पतन प्रारम्भ हो जाता है । ब्रिटिश शासनकाल में भारत में इंग्लैंड से निर्मित माल का अत्यधिक मात्रा में आयात किये जाने से ही भारत के घरेलू उद्योगों का पतन हुआ ।


{ 2 } प्राकृतिक साधनों का दुरुपयोग :- किसी भी देश में प्राकृतिक साधनों की एक सीमा होती हैं । अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के कारण पिछड़े राष्ट्रों के प्राकृतिक साधनों का उपयोग विकसित राष्ट्र बड़े पैमाने पर करने की चेष्टा करते हैं । अतः पिछड़े देश जब तक उन प्राकृतिक साधनों के उपभोग करने लायक होते हैं तब तक तो इन साधनों के भंडार ही समाप्त हो जाते हैं जैसे भारत में अभ्रक और मैंगनीज का अधिकांश उपयोग अभी तक विदेशियों द्वारा हो रहा है जबकि अब हमें भी अपने उद्योगों में बड़ी मात्रा में इसकी आवश्यकता रहेगी । लेकिन अब तक काफी अभ्रक भंडार खाली हो चुके हैं ।


{ 3 } आत्म-निर्भरता को हतोत्साहन/बाधा :- अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से प्रत्येक अर्थव्यवस्था एक-दूसरे पर निर्भर हो जाती है । एकांगी व्यापार से देश की अर्थव्यवस्था पंगु बन जाती है और  अर्थ-व्यवस्था में आत्म-निर्भरता का अभाव रहता है ।


{ 4 } देश का एकांगी एवं असन्तुलित आर्थिक विकास :- अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में तुलनात्मक लागत सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक देश उन वस्तुओं के उत्पादन में विशिष्टीकरण ( Specialization ) अपनाता है, जिनमें वह सर्वाधिक सक्षम एवं कुशल है तथा अधिक लाभ प्राप्त करता है । इससे देश की अर्थव्यवस्था का सर्वागीण विकास न होकर एकांगी विकास ( One-sided Development ) ही होता है । यह देश में राजनीतिक संकट एवं युद्धकाल में घातक सिद्ध होता है ।


{ 5 } उपभोक्ताओं की आदतों पर प्रतिकूल प्रभाव :- जहाँ अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में उपभोक्ताओं को अनेक प्रकार की सस्ती वस्तुएँ मिल जाती हैं वहाँ साथ-साथ में हानिकारक वस्तुओं के आयात से देश के उपभोक्ताओं में भी उनका उपयोग बढ़ सकता है । जैसे, आजकल भारत में विदेशों से आयातित शराब के उपभोग की प्रवृत्ति तथा अमेरिका के बीटल्स को भारत के गांजा और भांग पीने की आदत 19 वी शताब्दी में चीन के लोग भारत की अफीम के आदि हो गये थे । इस प्रकार अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार देशवासियों के स्वास्थ्य, चरित्र एवं आदतों पर बुरा प्रभाव डालता है ।


{ 6 } राशिपातन एवं गलाघोंट प्रतिस्पर्द्धा :- अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से विकसित देशों में विदेशी बाजार हथियाने का लालच उत्पन्न हो जाता है और ये परस्पर प्रतिस्पर्द्धा में इतने उलझ जाते हैं कि कभी-कभी अपनी वस्तु को लागत से भी कम कीमत में बेचने को तत्पर हो जाते हैं । इससे घरेलू उद्योगों का पतन तो होता ही है, साथ-साथ एकाधिकार प्रवृत्तियाँ पनपने से आर्थिक शोषण के प्रयास प्रबल होते हैं ।


{ 7 } अति-उत्पादन या कम-उत्पादन का भय :- अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से अन्तर्राष्ट्रीय विशिष्टीकरण को प्रोत्साहन मिलता है और बाजारों का विस्तार होता है । बाजारों के अत्यधिक विस्तार से माँग का ठीक-ठीक नहीं लगाया जा सकता । प्रत्येक देश अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से अधिकाधिक लाभ कमाने की दृष्टि से उत्पादन बढ़ाता है, इसमें विश्व में उत्पादन आधिक्य आर्थिक मंदी का कारण बन सकता है । इसके विपरीत माँग से कम उत्पादन होने पर मुद्रा-प्रसार को बढ़ावा मिलता है ।


{ 8 } प्राथमिक उद्योगों वाले देशों को क्षति :- अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में विशिष्टीकरण से कृषि प्रधान अथवा प्राथमिक उद्योग प्रधान ( पशुपालन, खनिज खोदना, चाय-बागान ) देशों में उत्पादन की मात्रा बढ़ाने पर सीमांत उत्पादन हास् नियम ( Law of Diminishing Returns ) लागू होता है जबकि औद्योगिक प्रधान देशों के औद्योगिक उत्पादन बढ़ाने पर सीमान्त उत्पत्ति वृद्धि नियम ( Law of Increasing Returns ) लागू होता है, इससे औद्योगिक-प्रधान देशों को कृषि-प्रधान देशों की अपेक्षा अधिक लाभ मिलते हैं और व्यापार शर्तें कृषि-प्रधान देशों के प्रतिकूल रहती हैं ।


{ 9 } आंतरिक उपभोग में कमी :- विदेशी मुद्रा अर्जन में लालच में जब देश से बड़े पैमाने पर उपभोग वस्तुओं का निर्यात किया जाता है तो आंतरिक उपभोग के लिए पूर्ति कम रहती है । इससे देश की जनता को उपभोग में कष्ट उठाना पड़ता है । भारत से चाय, चीनी, मशीनें, पंखे, सूखे मेवे आदि निर्यात किये जाते हैं तो भारत में उनकी पूर्ति कम रह जाने से ऊँचे मूल्य देने पड़ते हैं और उपभोग घटता है ।


{ 10 } युद्धकाल मे कठिनाई :- यद्यपि अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में राष्ट्रीय संकट और युद्धकालीन परिस्थितियों का मुकाबला करना सम्भव होता है, पर युद्ध निर्यातक देशों से ही हो जावे या दुश्मन चारों और से नाकेबंदी कर ले तो विदेशों पर निर्भरता खतरे से खाली नहीं मानी जाती ।


{ 11 } अन्तर्राष्ट्रीय द्वेष तथा संघर्ष :- जब तक अन्तर्राष्ट्रीय व्यपार में शोषण की प्रवृत्ति नहीं होती तब तक सद्भावना और सहयोग बढ़ता है, पर जब अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में शोषण की प्रवृत्ति प्रबल होने लगती है, शोषित एवं शोषक दोंनो में द्वेष के अंकुर पनपने लगते हैं तब ये इतने अधिक द्वेष में परिवर्तित हो सकते हैं की युद्ध को आमंत्रण दे सकते हैं । 1990 की आर्थिक मंदी के बाद विभिन्न देशों में पारस्परिक द्वेष बढ़ता गया, यहाँ तक कि सन 1939 में वह द्वितीय विश्व युद्ध के रूप में परिणित हो गया । इंग्लैंड को साम्राज्य-स्थापना में कितने ही संघर्ष करने पड़े ।


{ 12 } प्रतिकूल व्यापारिक शर्तों से क्षति :- अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में आयात-निर्यात की जाने वाली वस्तुओं की माँग लोच प्रायः होती है, अतः जिस देश की वस्तुओं की माँग की लोच विदेशों में अधिक लोचदार और विदेशों से आयातित माल की माँग कम लोचदार हो तो ऐसे देश को प्रतिकूल व्यापारिक शर्तों के कारण क्षति उठानी पड़ती है । जैसे भारत के लिए विदेशी आयातों की तो अनिवार्यता है जबकि निर्यातों की माँग लोचदार है, अतः प्रतिकूल व्यापारिक शर्तों के कारण क्षति उठानी पड़ती है ।


{ 13 } राजनीतिक दासता :- यह कहावत सत्य है कि व्यापार राजनीतिक दासता को जन्म देता है । ( Flag Follows the Trade ) इंग्लैंड ने व्यापार के माध्यम से ही भारत में अपना साम्राज्य जमाया और 150-200 वर्षों तक भारत को अपनी राजनीतिक दासता की जंजीरों में जकड़े रखा । भारत जैसे अनेक देशों के उदाहरण हैं जो एशिया, अफ्रीका आदि महाद्वीपों में पश्चात्य दासता की कहानी कहते हैं । अतः अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार राजनीतिक दासता को जन्म देता है ।


{ 14 } प्रदर्शन प्रभाव के दोष :- अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के कारण विकासशील देशों के समृद्ध परिवारों का प्रदर्शन प्रभाव पड़ता है । वे अपने साधनों को पूँजी निर्माण में न लगाकर विदेशियों के समान उत्कृष्ट उपभोग ( Conspicuous Consumption ) की ओर अग्रसर होते हैं, इससे देश के विकास में बाधा पड़ती है और गरीबों तथा अमीरों के जीवन-स्तर में अन्तर निराशा उत्पन्न करता है ।


{ 15 } उच्च कोटि की वस्तुओं से देशी उपभोक्ता वंचित :- उच्च कोटि की वस्तुओं का प्रायः निर्यात किया जाता है और आंतरिक उपभोग के लिए प्रायः घटिया माल ही बचता है । इस प्रकार अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के कारण देश के उपभोक्ताओं को उच्च कोटि की वस्तुओं के उपभोग से वंचित रहना पड़ता है ।


{ 16 } आर्थिक शोषण :- अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की असमान शर्तों के कारण विकसित देश प्रायः अर्द्धविकसित एवं पिछड़े देशों का शोषण करते हैं ।


{ 17 } राजनीतिक एवं प्रशासनिक भ्रष्टाचार :- अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में बड़ी बड़ी व्यापारिक कम्पनियों में एकाधिकार जमाने, क्रय-विक्रय के सौदे तय करने तथा अत्यधिक लाभ अर्जन हेतु रिश्वत, कमीशन आदि भ्रष्ट तरीके राजनीतिक एवं प्रशासनिक भ्रष्टाचार को बढ़ाते हैं ।


{ 18 } पिछड़े राष्ट्रों में रोजगार वृद्धि में बाधा :- अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के कारण पिछड़े राष्ट्र विकसित राष्ट्रों के उत्पादन की प्रतिस्पर्द्धा में नहीं टिक पाते, अतः उनके निर्यात एवं उत्पादन स्तर नीचे होते हैं । माँग की पूर्ति आयतों से की जाती है, अतः रोजगार नहीं बढ़ पाता व बेरोजगारी बढ़ती है ।


उपर्युक्त दोष एवं हानियाँ इतनी भयावह हैं कि कई राष्ट्र अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार पर अनेक प्रकार के प्रतिबंध लगाते हैं । आर्थिक स्वालम्बन पर जोर देते हैं ।


अतः यदि सतर्कता बरती जाए और विवेकपूर्ण ढंग से विदेशी व्यापार पर प्रभावी नियंत्रण रखा जाए तो अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार देश के सर्वांगीण विकास और आर्थिक समृद्धि का मार्ग प्रशस्त कर विश्व-बंधुत्व की भावना को प्रेरित कर सकता है ।

Comments

Popular posts from this blog

व्यावसायिक संचार ( Business Communication ) क्या है ?

व्यावसायिक संचार के उद्देश्य अथवा कार्य क्या है ? ( Objectives or Functions of Business Communication ? )

कम्पनी एवं साझेदारी में क्या अन्तर है ? ( Difference between Company and Partnership ? )